घोषणाओं का गोबर और पत्रकारों की आशा पर गौ मूत्र का छिड़काव ?
राजेन्द्र सिंह जादौन
2023 के विधानसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने शिवराज सिंह चौहान को फिर एक बार अपना चेहरा बनाया। मंचों पर वही मुस्कान, वही आवाज़ “मामा फिर आएँगे, विकास फिर लाएँगे।” और जनता के साथ-साथ पत्रकारों को भी सपनों का झोला थमा दिया गया। पत्रकार भवन का भूमि पूजन हुआ, घोषणाएँ हुईं, वादों की बरसात हुई। माइक थमाने वालों को इस बार माला भी पहनाई गई जैसे सत्ता कह रही हो, “तुम हमें लिखो, हम तुम्हें याद रखेंगे।”
पर सत्ता मिली, और वही हुआ जो हर बार होता है। घोषणाएँ फाइलों में सड़ गईं, और पत्रकारों की उम्मीदों पर सरकार ने “गोबर लिपाई” कर दी। जो फाइलें कल “प्राथमिकता” कहलाती थीं, आज उन्हीं पर सरकारी मोहर की धूल जमी है। पत्रकार भवन की ईंटें अब मज़ाक बन चुकी हैं नींव नहीं पड़ी, लेकिन वादे ज़रूर धँस गए।
चुनाव से पहले जो घोषणाएँ “सम्मान” कहलाती थीं, अब वही “औपचारिकता” हो गई हैं। सरकार कहती है बजट की प्रतीक्षा है”, अफसर कहते हैं “अनुमोदन शेष है”, और पत्रकार कहते हैं “हम तो अब ख़बर नहीं, ख़बर का विषय बन गए हैं।” कभी जो सत्ता पर सवाल उठाते थे, अब उन्हीं को सत्ता की फाइलों में ढूँढा जा रहा है।
सत्ता को अब पत्रकारों की ज़रूरत सिर्फ़ तब होती है जब पोस्टर छपवाने हों, प्रेस कॉन्फ़्रेंस करनी हो, या किसी विरोध की खबर को सजाने के लिए “विकास” की हेडलाइन चाहिए हो। उसके बाद वही पत्रकार, वही कलम, वही आवाज़ अचानक “एंटी” या “गैर-ज़रूरी” घोषित कर दी जाती है।
भोपाल के गलियारों में अब हर पत्रकार जानता है कि “पत्रकार भवन” केवल एक प्रतीक है वादों के कब्रिस्तान का। जहाँ हर मुख्यमंत्री एक नई नींव रखता है, और अगले चुनाव तक उसे भूले रहता है। ये वही भवन है जिसकी ईंटें अभी तक हवा में हैं, लेकिन नामफलक पहले ही लग चुका है।
पत्रकारों के लिए बने कल्याण कोष अब “कागज़ी आस्था” बन चुके हैं। योजनाएँ बनती हैं, समितियाँ बैठती हैं, और घोषणाएँ ऐसे की जाती हैं मानो पत्रकारों का उद्धार बस हस्ताक्षर की दूरी पर है। लेकिन असलियत यह है कि सत्ता को अब सच्चाई नहीं चाहिए, बस सन्नाटा चाहिए। क्योंकि सवाल पूछने वाला पत्रकार हर सरकार के लिए सबसे असहज आईना होता है और यह सरकारें अब आईना नहीं, बस मेकअप चाहती हैं।
शिवराज की सत्ता हो या मोहन यादव की, पत्रकारों के लिए वादे हमेशा एक जैसे रहते हैं “जल्दी होगा”, “प्रक्रिया में है”, “निर्णय लंबित है।” और इस इंतज़ार के बीच पत्रकारों की पीढ़ियाँ बदल जाती हैं। अब लगता है, पत्रकार भवन नहीं बनेगा, बल्कि एक “स्मारक” बनेगा उन पत्रकारों की याद में जिन्होंने सवाल पूछने की हिम्मत की थी।
सत्ता अब कहानियाँ नहीं लिखती, बस विज्ञापन छपवाती है। और पत्रकार? वे अब वही पंक्ति दोहरा रहे हैं घोषणाएँ गोबर बन गईं, और उम्मीदों पर गोमूत्र छिड़क दिया गया।”
